2 अप्रैल 2009

फर्स्ट अप्रैल की मधुर स्मृति...

कल फर्स्ट अप्रैल पर मुझे भी मेरे बचपन की शरारतों ने आ घेरा, नींद का आँखों में नामोनिशान न था, रह-रहकर मुझे अपना मासूम, चुलबुला, प्यारा सा बचपन याद आ गया, अब तो वो मासूमियत दुनिया के थपेड़ों से कठोरता में,चुलबुलापन बच्चे और परिवार की जिम्मेदारियों में और बडप्पन में बदल गया है. लेकिन दिल तो वही है जिसमें यादों का खज़ाना हुआ है। उसी खज़ाने का एक प्यारा सा मोती आप सबके साथ बाँटना चाहूँगी…

ऐसा ही एक दिन था फर्स्ट अप्रैल का दिन, हम सभी परिवार के लोग अपने फार्म हाऊस पर गए हुए थे। हम भाई-बहिन बहुत धमा-चौकड़ी मचाते थे, शरारतें करते थे, पर पापाजी से सभी डरते थे, उन्हें देखकर तो बस साँप ही सूँघ जाता था, भूख-प्यास सब गायब हो जाती थी।

शाम का वक्त था मम्मी ने हमें बुलाया, वो रसोईघर में काम कर रहीं थी, हमसे बोली- "जाओ अपने पापाजी से कहो फार्म से अच्छा सा सीताफल ले आयें आज खट्टा मीठा सीताफल,परांठे और खीरे का रायता बना दूँगी, तुम लोगों को बहुत पंसद है ना" हमने भी खूब उछल-उछलकर कहा -"हाँ हाँ बहुत मजा आयेगा।" हमारी उम्र ६ साल रही होगी हम अपने बड़े भाई के साथ पापाजी को मम्मी की बात बताने पहुँच गए पापाजी ने कहा-“ चलो तुम लोग भी चलो” हम भी खुशी-खुशी पापाजी के साथ चल दिए। दूर-दूर तक फैले फार्म हमें बहुत भाये, चारों तरफ हरियाली ही हरियाली ,बहुत सारे पेड़ -आम,अमरूद, केले, कटहल, जामुन और भी ना जाने कितने, एक जगह पर बहुत सारी बेल फैली हुई थी जो रंग बिरंगे फूलों से सजी थी ,तब उनका नाम नहीं जानते थे, वहीं उन बेलों के पास पापाजी को जाते हुए देखा, शायद सीताफल वहीं होता है, यही सोचकर हम पापाजी का इन्तजार करने लगे जैसा कि उन्होंने आदेश दिया था।

थोड़ी देर बाद पापाजी को खाली हाथ आते हुए देखकर हमने पूछा- "क्या नहीं मिला "? तो वो बोले कि - "पहले ये बताओ कौन ले जाकर देगा अपनी मम्मी को मैंने तपाक से कहा- "मैं"। पापाजी ने कहा- "ठीक है मैं कुछ लेकर आता हूँ जिसमें उसको रख लूँ फिर तुम्हें दे दूँगा" । हमने हाँ में गर्दन हिला दी थोड़ी देर बाद वो एक कम्बल का टुकड़ा लेकर आये और वापस बेल वाले स्थान पर चले गए, वापस आये तो उनके हाथ में उस कम्बल के टुकड़े में सीताफल है सोचकर हम खुश होते हुए उनके पास पहुँचे, पापाजी ने थोड़ी दूर तक खुद ही रखने के बाद देने को बोला, क्योंकि वो हमारे लिए बहुत भारी था।

अब दरवाजे के पास जाकर उन्होंने हमें वो भारी-भरकम सीताफल दे दिया, हम ठहरे सींकड़ी पहलवान, हमसे वो सँभाले ना सँभले, पर हमने भी हार ना मानी और हम लुढकते पुडकते मम्मी के पास पहुँच गए, जो अँगीठी में कोएले डाल रहीं थी और चौकी पर बैठी थी हमने पापाजी के निर्देशानुसार जाकर, उनकी गोद में वो कम्बल के टुकड़े में लिपटा सीताफल लगभग पटक सा दिया, ताकि बोझ से निजात मिले, खाना तो बहुत पंसद था, पर आज जब उसको ढोना पड़ा तो नानी याद आ गई मैं,पापाजी और हमारे भाई वही खड़े मम्मी को उसको खोलते हुए देख रहे थे मम्मी ने जैसे ही उसको खोला तो तेजी से कोई चीज कूदती नजर आई और पापाजी जोर से चिल्लाए अप्रैल फूल बनाया, अप्रैल फूल बनाया हम भी उनके साथ यूँ ही चिल्लाने लगे और सभी उस भागने वाले जीव के पीछे दौड़े, मम्मी सहित, जानते हैं वो क्या था जी हाँ वो तो एक कछुआ था जो दौड़े जा रहा था और हम उसके पीछे ताली बजा-बजाकर नाच रहे थे फिर वो बाहर बने एक बड़े से नाले में कूद गया और हम बस मम्मी की शक्ल देखते रहे, जो अब भी उसकी सिहरन को महसूस कर रहीं थी।

(आज़ मैं यहाँ बहुत अकेला महसूस करती हूँ, उस मिट्टी की खुशबू को, उस शीतल हवा को अपने साँसों में महसूस करती हूँ, इतने दूर बैठे अपने माँ, पा को और कभी-कभी बच्ची बन खो जाती हूँ यादों के जंगल में ...परदेसी हवा और अपने वतन की हवा में बस यही तो अंतर है...)

डॉ० भावना